खूबसूरत हिमाचल के चेहरे को प्रकृति ने क्रूर खरोंचों से भर दिया है। यह मंजर रुलाने वाला है। कोई भूस्खलन में दब गया तो कोई नदी-नाले में बह गया। कंक्रीट के भवन ताश के पत्तों की तरह भरभराकर ढहने लगे। नदियां-नाले अपना रौद्र रूप धारण कर सारी रुकावटें तोड़ने लगे। हिमाचल प्रदेश में ऐसी भयावह बरसात कभी नहीं हुई। इसके लिए केवल मानसून जिम्मेदार नहीं, यह पारिस्थितिकी से छेड़छाड़ का दुष्परिणाम है जो भविष्य में खतरा और अधिक बड़ा होने की चेतावनी भी है। अभी तो मवाद फटा है, आगे कहीं नासूर न बन जाए।
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बर्बादी के लिए आदमी खुद ही जिम्मेवार
हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला के भूगोल शास्त्र विभाग के अध्यक्ष बीआर ठाकुर कहते हैं कि प्रदेश में आपदा से हुई बर्बादी के लिए आदमी खुद ही जिम्मेवार है। यह पूरी तरह मानवजनित आपदा है, जबकि बारिश ने इसमें आग में घी डालने का काम किया है। मई से पश्चिमी विक्षोभ पहले ही सक्रिय था। 24 जून को मानसून के पहुंचने के कुछ दिन बाद बादल दोहरे वेग से ऐसे बरसने लगे कि पर्यटन नगरी मनाली के कई हिस्से तबाह हो गए। छोटी काशी मंडी ब्यास नदी में जलमग्न होने लगी। तबाही का सिलसिला यहीं नहीं रुका। अगस्त में भी विनाशलीला जारी है। शिमला में तो कुदरत ने ऐसा तांडव मचाया कि मंदिर में सवेरे पूजा करते 20 लोग दब गए।
पक्के भवन उखड़ गए
कृष्णानगर में कच्चे ढारों के बीच बनाए पक्के भवन उखड़ गए। कुल्लू के आनी में आठ बहुमंजिला इमारतें कुछ ही सेकंडों में भरभराकर ढह गईं। मानसून आने के बाद अब तक 379 लोगों की जान जा चुकी है, जो बीते वर्षों में जनहानि का सबसे बड़ा आंकड़ा है। 10 हजार करोड़ रुपये की संपत्ति नष्ट हो चुकी है। आपदा ने पर्यटन, बागवानी और फार्मा उद्योग की कमर तोड़ कर रख दी है। 792 सड़कें अब भी बंद हैं। लंबे समय बाद ऐसा हुआ है, जब मनाली और शिमला जैसे बड़े पर्यटन स्थलों में होटल खाली पड़े हैं। विश्व धरोहर कालका-शिमला रेल ट्रैक जगह-जगह मलबे की चपेट में आ गया है। हवाई और रेल सेवाएं भी ठप हैं। हिमाचल को चंडीगढ़, पंजाब व दिल्ली से जोड़ने वाले फोरलेन हाईवे भी सैकड़ों जगह धंस गए हैं।
हजारों लोग बेघर
आपदा के कारण हजारों लोग बेघर हो गए हैं और शरणार्थियों जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं। इस तबाही ने मौजूदा विकास के मॉडल पर भी सवाल खड़े किए हैं। भंगुर पहाड़ों की क्षमता का अंदाजा लगाए बगैर यहां दशकों से विकास गाथा लिखने की जिद बनी रही। बिजली प्रोजेक्टों के लिए पहाड़ बींधकर सुरंगें खोदी गईं। फोरलेन, अनियोजित सड़क निर्माण, खनन आदि ने धरती को हिलाकर रख दिया है। नदियों-नालों के रास्ते रोककर किए अवैज्ञानिक निर्माण ने उन्हें रास्ते बदलने को मजबूर कर दिया। बादल फटने और मूसलाधार बारिश ने रही-सही कसर पूरी कर दी। केंद्र सरकार व राज्य सरकार ने मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाया है लेकिन पीड़ितों की दुश्वारियां खत्म होने में वक्त लगेगा।
वर्षों से हिमालयी राज्यों के लिए अलग विकास नीति की मांग कर रहे पर्यावरणविद् भी मुखर हो गए हैं। उनका कहना है उत्तराखंड में केदारनाथ त्रासदी से सबक लेने की जरूरत थी, जो नहीं लिया गया। बेतरतीब भवन व सड़क निर्माण ने देवभूमि के वजूद को खतरे में डाल दिया है। ग्लोबल वार्मिंग व वर्षा के बदले पैटर्न ने पर्यावरण विशेषज्ञों की चिंता भी बढ़ा दी है। 122 साल बाद शिमला में 201 मिमी बारिश के आंकड़े ने चेतावनी दे दी है कि अब न संभले तो स्थिति और खतरनाक हो जाएगी। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण के सेवानिवृत्त क्षेत्रीय निदेशक डॉ. केसी पराशर चिंता जताते हैं कि अभी तक अध्ययन नहीं हुआ कि कौन सा क्षेत्र किस तरह का है। इसके बगैर ही निर्माण और खनन कार्य तबाही की पृष्ठभूमि रचे हुए हैं।
नियम-कायदे ताक पर रख दिए
कंक्रीट के जंगलों में बदलते हिमाचल के शहरों में नियम-कायदे ताक पर रख दिए गए हैं। सेवानिवृत्त भू-विज्ञानी रजनीश शर्मा कहते हैं कि शिमला ही नहीं, प्रदेश के कई शहरों में क्षमता से ज्यादा आबादी है और उनकी बसावटें भी। करीब पौने दो सौ साल पहले जब अंग्रेजों ने शिमला बसाया तो यहां 25,000 से ज्यादा लोगों को नहीं बसाने की योजना थी। आज जनसंख्या ढाई लाख पार हो गई है। शिमला में 1936 में जन्मे सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी श्रीनिवास जोशी बताते हैं कि उनके जीवनकाल में इतनी भारी बारिश और ऐसी तबाही कभी नहीं हुई।
तब तो सब आंखें मूंदे रहे
फोरलेन व बिजली प्रोजेक्टों ने जिस तरह पहाड़ों को छलनी किया है, वह पूरी तरह वैज्ञानिक व तकनीकी रूप से सही नहीं है। इस वजह से भी पहाड़ दरक रहे हैं। किन्नौर निवासी 92 वर्षीय पूर्व आईपीएस अधिकारी आईबी नेगी का कहना है कि पहाड़ काटकर फोरलेन बनाना जरूरी नहीं है। उल्लेखनीय है कि नदियों के किनारे सौ मीटर तक निर्माण नहीं हो सकता लेकिन इस नियम का पालन नहीं हुआ और न ही सरकार ने ध्यान दिया। जब नदियों ने रौद्र रूप दिखाया तो अनेक बस्तियां बह गईं। मंडी जिले के थुनाग में खड्ड में पानी आया तो गांव में बहकर आए हजारों कटे-टूटे हुए पेड़ बयां कर रहे थे कि विकास के नाम पर विनाशलीला की नींव रख दी गई थी और सब आंखें मूंदे रहे।
सदी की सबसे भीषण तबाही के 7 कारण :-
पहाड़ों की सीधी कटाई : नेशनल हाईवे, फोरलेन के लिए पहाड़ों की 90 डिग्री एंगल यानी वर्टिकल कटिंग होती रही है। यही फोरलेन किनारे तबाही का कारण है। वर्टिकल कटिंग से बचना हो तो इसके लिए ज्यादा जमीन जरूरी होती है। जितनी जमीन जरूरी होती है, उतनी का अधिग्रहण नहीं किया जाता। पर्याप्त जमीन नहीं मिलने व पैसा बचाने के लिए अंधाधुंध कटान जारी है।
अवैज्ञानिक व अंधाधुंध निर्माण: बेतरतीब निर्माण से शहर कंक्रीट के जंगल बन गए हैं। नदी-नालों के किनारे बेहिसाब आबादी बस गई है। पहाड़ों को काटकर बहुमंजिला भवन खड़े कर दिए गए। शहरों में क्षमता से अधिक घर बना दिए गए। बिना जांच किए कच्ची मिट्टी पर निर्माण हो रहा है। बड़ी कंपनियां छोटे-छोटे कार्य अनुभवहीन ठेकेदारों को देती हैं, जिन्हें ज्यादा जानकारी नहीं है।
पेड़ों का कटान : अंधाधुंध पेड़ कटान भी आपदा का बड़ा कारण है। सड़कों व इमारतों के निर्माण के लिए हुआ कटान भी तबाही लेकर आया है। नदियों में बहकर आए पेड़ इसके सबूत दे रहे हैं।
नदियों में मलबा : सड़कों और नदी-नालों के किनारे मलबा अवैध रूप से डंप हो रहा है। मलबा नदियों में फेंका जा रहा है। ब्यास में माइनिंग न होने से रिवर बेड फैल रहा है। बाकी जगह खड्डों और नालों में तय मानकों से अधिक अवैध रूप से खनन हो रहा है। इससे नदियों की राह बदल रही है।
अत्यधिक ब्लास्ट : बिजली प्रोजेक्ट लगाने के लिए पहाड़ों को छलनी किया जाता रहा है। नदियों का पानी टनलों से गुजारा जा रहा है। टनल के लिए अत्यधिक ब्लास्टिंग से पहाड़ हिल रहे हैं।
ड्रेनेज सिस्टम नहीं: कंक्रीट के जंगल तो बना दिए गए लेकिन ड्रेनेज सिस्टम विकसित नहीं किए गए। ज्यादा बारिश होने पर पानी को जहां से राह मिली बहाव तेज हो गया और मकान ढह गए। हाईवे किनारे भी नालियों की सफाई बरसात से पहले नहीं होती।
ग्लोबल वार्मिंग की वजह से अतिवृष्टिः अत्यधिक बारिश की वजह ग्लोबल वार्मिंग है। मौसम विज्ञानियों के मुताबिक ग्लेशियर पिघल रहे हैं, अब बर्फ कम पड़ रही है और बारिश ज्यादा हो रही है। बादल फटने की घटनाएं भी इस वजह से बढ़ी हैं।